बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

प्राण हैं आज से टूटने के लिए


 

प्राण हैं आज से टूटने के लिए


भोग है भाग्य काऔर कुछ भी नहीं, हम मिले भी तो यों छूटने के लिए।

ये जुड़ेंगे किसी ज़िन्दगी से कहाँ? प्राण हैं आज से टूटने के लिए।।

 

जब कहीं भी रहा ही नहीं जा सका,

तो यहाँ आ गया, काटने दो घड़ी।

पातियाँ बाँचते-बाँचते,  कोर से-

कान तक आ गई आँसुओं की कड़ी।।

दर्द होने लगा, फिर वहीं बाँह में,  था जहाँ एक दिन सर तुम्हारा रखा।

साँझ है, झील है, पेड़ कचनार का, सिर्फ़ तुम ही नहीं रूठने के लिए।।

 

झील में सूर्य के डूबते-डूबते,

आज फिर हो गया है अँधेरा गहन।

काँपते-काँपते से लगे लौटने,

बादलों से घिरी चाँदनी के चरन।।

नूपुरों की क्वणन’, शून्य में खो गई,  दृष्टि को ख़ींच कर पंथ में ले गई।

यों रहा रात भर, मैं अकेला यहाँ, घाटियों में वृथा घूमने के लिए।।

 

भीज कर भागते-भागते, थे इसी-

कन्दरा में छिपे, केश निचुरे वहाँ।

तापते-तापते, डाल गलबाहियाँ,

शीष काँधे धरे, सो गए तुम यहाँ।।

आँसुओं का नहीं, दोष है आँख का, आँख का भी नहीं दोष मन का कहो।

धीर धरता नहीं पीर के बोझ से, है विकल जो इन्हें घूँटने के लिए।।

-4 जनवरी, 1980

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