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स्व. शंकर लाल द्विवेदी (२१ जुलाई, १९४१-२७ जुलाई, १९८१) |
हम-तुम एक डाल के पंछी
हम-तुम एक डाल के पंछी, आओ हिलमिल कर कुछ गाएँ।
अपनी प्यास बुझाएँ, सारी धरती के आँसू पी जाएँ।।अपनी ऊँचाई पर नीले-अम्बर को अभिमान बहुत है।वैसे इन पंखों की क्षमता,उसको भली प्रकार विदित है।।तिनके चुन-चुन कर हम आओ, ऐसा कोई नीड़ बसाएँ-जिस में अपने तो अपने, कुछ औरों के भी घर बस जाएँ।।धूल पी गई उसी बूँद को-जो धारा से अलग हो गई।हवा बबूलों वाले वन में,बहते-बहते तेज़ हो गई।।इधर द्वारिका है, बेचारा, शायद कभी सुदामा जाए।आओ, हम उसकी राहों में काँटों से पहले बिछ जाएँ।।कौन करेगा स्वयं धूप सह,मरुथल से छाया की बातें।रूठेंगे दो-चार दिनों को,चंदा और चाँदनी रातें।।अपत हुए सूखे पेड़ों की हरियाली वापस ले आएँ।चातक से पाती लिखवा कर मेघों के घर तक हो आएँ।।
-24 अगस्त, 1967
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