शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

‘शंकर’ कंगाल नहीं

 



शंकरकंगाल नहीं

 

कल सारा जग था सगा, किन्तु अब कोई साथ नहीं।

इसलिए कि मेरे हाथ रहे अब कंचन-थाल नहीं।।

 

क्या कहूँ तिमिर में परछाईं भी साथ नहीं चलती।

काजल इतना बह गया,  अँधेरी रात नहीं ढलती।।

रवि उगा,  यही देखा कि वनों में टेसू फूले हैं।

कुछ पिचकारी, कुछ शोर, प्रजाजन सुख-दुःख भूले हैं।।

 

आ कर भी द्वार सुदामा, अब के होली मिला नहीं।

इसलिए कि कान्हा पर माँटी थी, रंग-गुलाल नहीं।।

 

यह समय-समय की बात आज सब परिजन रूठे हैं।

झूठे होने के साथ सभी अभियोग अनूठे हैं।।

अन्तःनयनों पर आज स्वार्थ का पड़ा आवरण है।

हठवादी हथकड़ियों में जकड़ा हुआ आचरण है।।

 

अब 'तिष्यरक्षिता' खटपाटी पर है, पय पिया नहीं।

इसलिए कि अंधा होने को तैयार 'कुणाल' नहीं।।

 

रुचि की बलिहारी, सभी साँच को आँच दिखाते हैं।

हनते कपोत, हँस कर उलूक को पास बिठाते हैं।।

हित-अनहित का सुविचार नहीं- यह कैसा जमघट है?

बचपन था ही नादान, और अब यौवन नटखट है।।

 

जनता ने बुला लिया कवि को, पर कुछ भी सुना नहीं-

इसलिए कि उसने गाए थे कुछ गीत,  ख़याल नहीं।।

 

मुझ पर अपना कुछ नहीं, नियति ने जो कुछ मुझे दिया-

मैंने प्रमुदित तन-मन से सबको,  दे सर्वस्व दिया।।

अँजुरी में खारी अश्रु-सलिल भर, अब तो शेष रहा।

द्वार खड़ा याचक यदि लौटे, तो अवसाद बढ़ा।।

 

माँगो, कोई याचक निराश हो वापस गया नहीं-

इसलिए कि काया भर कृश है, ‘शंकरकंगाल नहीं।।

-11 फरवरी, 1965

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

शंकरलाल द्विवेदी : अपने कुल की प्रथा नहीं है


 अपने कुल की प्रथा नहीं है 

मैं तो इतना भाग्यवान हूँ जिसे अभावों ने है पाला।

चिंताओं की सेज मिली है और दुखों का मिला दुशाला।। 

यह मैं कैसे घोषित कर दूँ, मेरे मन में व्यथा नहीं है-

लेकिन उनसे हार मानना, अपने कुल की प्रथा नहीं है

बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

प्राण हैं आज से टूटने के लिए


 

प्राण हैं आज से टूटने के लिए


भोग है भाग्य काऔर कुछ भी नहीं, हम मिले भी तो यों छूटने के लिए।

ये जुड़ेंगे किसी ज़िन्दगी से कहाँ? प्राण हैं आज से टूटने के लिए।।

 

जब कहीं भी रहा ही नहीं जा सका,

तो यहाँ आ गया, काटने दो घड़ी।

पातियाँ बाँचते-बाँचते,  कोर से-

कान तक आ गई आँसुओं की कड़ी।।

दर्द होने लगा, फिर वहीं बाँह में,  था जहाँ एक दिन सर तुम्हारा रखा।

साँझ है, झील है, पेड़ कचनार का, सिर्फ़ तुम ही नहीं रूठने के लिए।।

 

झील में सूर्य के डूबते-डूबते,

आज फिर हो गया है अँधेरा गहन।

काँपते-काँपते से लगे लौटने,

बादलों से घिरी चाँदनी के चरन।।

नूपुरों की क्वणन’, शून्य में खो गई,  दृष्टि को ख़ींच कर पंथ में ले गई।

यों रहा रात भर, मैं अकेला यहाँ, घाटियों में वृथा घूमने के लिए।।

 

भीज कर भागते-भागते, थे इसी-

कन्दरा में छिपे, केश निचुरे वहाँ।

तापते-तापते, डाल गलबाहियाँ,

शीष काँधे धरे, सो गए तुम यहाँ।।

आँसुओं का नहीं, दोष है आँख का, आँख का भी नहीं दोष मन का कहो।

धीर धरता नहीं पीर के बोझ से, है विकल जो इन्हें घूँटने के लिए।।

-4 जनवरी, 1980

मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

तरनी उतरि गई लहरनि में


 

तरनी उतरि गई लहरनि में *

 

कर में, कसि कैं गहि पतबार, तरनी उतरि गई लहरनि में।

 

नीलौ अम्बरु, कारौ पानी,

इकिलौ जानि हबा बौरानी।

छायौ घटा-टोप अँधियार, बिजुरी कौंधन लगी, गगन में।

तरनी उतरि गई लहरनि में।।

 

बढ़ि चलि, कहा लहरि की काया,

करिहै पुरसारथ तैं माया।

मनिरवा! भँमर जाल संसार, डर गयौ तौ डूबैगौ छिन में।

तरनी उतरि गई लहरनि में।।

 

इतनीं निहचै जानि खिबैया,

जौ लगि धीरज,  तौ लगि नैया।

उतमैं चढ्यौ धार पै ज्वार, इतमैं पाहन बंध्यौ पगनि में।

तरनी उतरि गई लहरनि में।।

 

तिनुका ह्वै, तिरिबे की बारी-

मति करि मन पहार सौ भारी।

इनकौ, सागरु अगम अपार, भरियो मति अँसुवा अँखियनि में।

तरनी उतरि गई लहरनि में।।

 


  • आकाशवाणी दिल्ली से 'ब्रज-माधुरी' कार्यक्रम के अंतर्गत १२ जून, १९७० को प्रसारित 

 

 

 

 

व्यामोह जीवन के लिए




व्यामोह जीवन के लिए

 

सुख  का शुभागमन ही नहीं, दुःख का समापन भी नहीं।

फिर क्यों मिला इतना प्रबल व्यामोह जीवन के लिए।।

आलोक की कोई किरण,

देती नहीं मुझको शरण।

तम जो विरासत में मिला,

धरता रहा अभिनव चरण।

निर्वेद-दीपक-ज्योति पर,

संकल्प-शलभ मिटा दिए।

निष्फल प्रतीक्षा ने, मरण-

के साज़ सकल जुटा दिए।

ऋत् का निदर्शन ही नहीं, मत का समर्थन भी नहीं।

फिर क्यों मिली इतनी ललक, दो गीत सर्जन के लिए।।

अथ्’ ‘इतिअहम् की तोल दी,

निष्काम बन जिनके लिए।

अधिकृत-समर्पित है अभी-

तन-मन सभी उनके लिए।

अवसाद! नीरस रेणु में,

सरसिज-जलज खिलते नहीं।

इतनी विशद भू पर कहीं-

सहृदय स्वजन मिलते नहीं।

भ्रम का समर्पण ही नहीं, निर्मल मनो-दर्पण  नहीं।

फिर क्यों विवक्षा है विकल अनुरूप-दर्शन के लिए।।

गत विस्मरण होता नहीं,

आगत उपेक्षित क्यों करूँ?

निर्वह अनागत में कहो-

किस कल्पना के रंग भरूँ?

उद्गम-विलय के बीच में,

जो कुछ मिले, है वेदना।

कैसे भरूँ घट में गरल?

कब तक करूँ अह्वेलना?

समुचित विभाजन ही नहीं,  नृण-नति-प्रतारण भी नहीं।

फिर क्यों नयन रोते रहे,  अनुराग-अर्जन के लिए।।

 अपवित्र मंगल-कलश हूँ,

उपयोग कोई क्यों करे?

कल्मष अवनि के पी गया,

मधुरस गगन क्यों कर भरे?

जब तू 'युधिष्ठिर-राम' से-

नादान छल करती रही।

चिर् नींद! मेरी श्वास ही

क्यों अंक में भरती नहीं?


यह तन सनातन ही नहीं,  यह मन 'जनार्दन' भी नहीं।

फिर क्यों सुमन विकसित हुए, सुख-जल-निमज्जन के लिए।।

-27 जुलाई, 1964

हम-तुम एक डाल के पंछी


स्व. शंकर लाल द्विवेदी (२१ जुलाई, १९४१-२७ जुलाई, १९८१)

हम-तुम एक डाल के पंछी 

हम-तुम एक डाल के पंछी, आओ हिलमिल कर कुछ गाएँ।
अपनी प्यास बुझाएँ, सारी धरती के आँसू पी जाएँ।। 

 अपनी ऊँचाई पर नीले- 
 अम्बर को अभिमान बहुत है। 
वैसे इन पंखों की क्षमता, 
उसको भली प्रकार विदित है।। 
तिनके चुन-चुन कर हम आओ, ऐसा कोई नीड़ बसाएँ- 
जिस में अपने तो अपने, कुछ औरों के भी घर बस जाएँ।। 

धूल पी गई उसी बूँद को- 
जो धारा से अलग हो गई। 
हवा बबूलों वाले वन में, 
बहते-बहते तेज़ हो गई।। 
इधर द्वारिका है, बेचारा, शायद कभी सुदामा जाए। 
आओ, हम उसकी राहों में काँटों से पहले बिछ जाएँ।। 

कौन करेगा स्वयं धूप सह, 
मरुथल से छाया की बातें। 
रूठेंगे दो-चार दिनों को, 
चंदा और चाँदनी रातें।। 
अपत हुए सूखे पेड़ों की हरियाली वापस ले आएँ। 
चातक से पाती लिखवा कर मेघों के घर तक हो आएँ।। 
-24 अगस्त, 1967

  कविवर शंकर द्विवेदी और उनके सृजन की पृष्ठभूमि* ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ कविवर श्री शंकर द्विवेदी मेरे साथी और दोस्त थे, उम्र में ही ...