‘शंकर’ कंगाल नहीं
कल सारा जग था
सगा, किन्तु अब कोई साथ नहीं।
इसलिए कि मेरे
हाथ रहे अब कंचन-थाल नहीं।।
क्या कहूँ तिमिर
में परछाईं भी साथ नहीं चलती।
काजल इतना बह गया, अँधेरी रात नहीं
ढलती।।
रवि उगा, यही देखा कि वनों
में टेसू फूले हैं।
कुछ पिचकारी, कुछ शोर, प्रजाजन सुख-दुःख
भूले हैं।।
आ कर भी द्वार
सुदामा, अब के होली मिला नहीं।
इसलिए कि कान्हा
पर माँटी थी, रंग-गुलाल नहीं।।
यह समय-समय की
बात आज सब परिजन रूठे हैं।
झूठे होने के साथ
सभी अभियोग अनूठे हैं।।
अन्तःनयनों पर आज
स्वार्थ का पड़ा आवरण है।
हठवादी हथकड़ियों
में जकड़ा हुआ आचरण है।।
अब 'तिष्यरक्षिता'
खटपाटी पर है, पय पिया नहीं।
इसलिए कि अंधा
होने को तैयार 'कुणाल' नहीं।।
रुचि की बलिहारी, सभी साँच को आँच दिखाते हैं।
हनते कपोत, हँस कर उलूक को पास बिठाते हैं।।
हित-अनहित का
सुविचार नहीं- यह कैसा जमघट है?
बचपन था ही नादान,
और अब यौवन नटखट है।।
जनता ने बुला
लिया कवि को, पर कुछ भी सुना नहीं-
इसलिए कि उसने
गाए थे कुछ गीत, ख़याल नहीं।।
मुझ पर अपना कुछ
नहीं, नियति ने जो कुछ मुझे दिया-
मैंने प्रमुदित तन-मन
से सबको, दे
सर्वस्व दिया।।
अँजुरी में खारी
अश्रु-सलिल भर, अब तो शेष रहा।
द्वार खड़ा याचक यदि
लौटे, तो अवसाद बढ़ा।।
माँगो, कोई याचक
निराश हो वापस गया नहीं-
इसलिए कि काया भर
कृश है, ‘शंकर’ कंगाल नहीं।।
-11 फरवरी, 1965
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