कविवर शंकर द्विवेदी और उनके सृजन की पृष्ठभूमि*
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कविवर श्री शंकर द्विवेदी मेरे साथी और दोस्त थे, उम्र में ही नहीं प्रतिभा, ज्ञान और जीवटता में भी वे मुझसे बड़े थे, इसलिए बड़े भाई की तरह प्यार भी करते थे। तिरस्कार भी कर देते थे। मैं उनका प्रशंसक था पर ऐसे अवसर भी आए जब मैंने उनकी आलोचना भी की। यह बात दूसरी है कि उन्होंने ऐसी आलोचना का अधिकार मुझे दे रखा था। फिर भी मैं सोचता हूँ कि उनके प्रति आग्रह मुक्त न रह सकूँ, इसलिए अपने को उनके सृजन की समीक्षा करने में असमर्थ समझ रहा हूँ। किन्तु उनके सृजन की पृष्ठभूमि का साथी तो मैं हूँ ही।
सन् 1966 में मथुरा की एक कवि गोष्ठी में लोकधुनों में उनके मुख से ब्रजभाषा रचना सुन कर मुग्ध हो गया था। आज उनकी तीन डायरियाँ मेरे हाथों में हैं। ये कविता उनके कण्ठ में पहुँच कर कितनी मीठी बन जाती थीं, यह मैं कैसे बताऊँ? उनके उसी स्वर ने तो मुझे भी सम्मोहित किया था।
सन् 1969 में जब मैं के0 एल0 जैन इण्टर कॉलेज, सासनी में आया तो उनके निकट हो गया। उनका रौद्र रूप भी देखा, शिव रूप भी। उनके साथ रुदायन, इगलास, अलीगढ़ के मार्गों पर घूमता चम्पा बाग़ और क़िले की ओर जाता तथा समामई की पुलिया पर बैठ कर वर्षा के बहते प्रवाह को देखता। मन की बातें करते, गप्पें हाँकते और घन्टों बहस करते, इतनी बहस कि कभी-कभी श्रीमती द्विवेदी अनमनी हो जातीं। उनकी बातों में संतों की वाणी जैसी सरलता, उसकी माँ के लाल जैसी क्राँतिकारी निश्छलता और काम की बातें होतीं। कूटनीति और राजनीति भी वे जानते थे।
द्विवेदी जी की ज़िन्दगी ‘एकसार’ नहीं थी। उसमें गहरे-ऊँचे उतार-चढ़ाव थे। मैं क्यों कहूँ कि उनमें गुण ही गुण थे। वह फरिश्ता नहीं इन्सान थे। उनमें गहरा अंतर्द्वन्द्व था। परस्पर विरोधी धर्म उनमें सहचर बने थे।
जीविकोपार्जन के लिए वे कई संस्थाओं में जमे, उखड़े और फिर जमे। दोस्ती भी की और दुश्मनी भी की। बड़े निश्चिंत और बेपरवाह थे। एक बार उनके साथ कानपुर जाने का अवसर मिला, कन्या इण्टर कॉलेज, सासनी (जनपदः-हाथरस) के लिए राष्ट्रकवि सोहन लाल द्विवेदी को बुला कर लाना था। ट्रेन में सामयिक राजनीति की चर्चा चली तो ऐसे उलझे कि देखते-देखते विद्रोह का प्रचण्ड रूप बन गए। उन दिनों इमर्जेंसी लगी थी और बुद्धिजीवियों की गिरफ़्तारियाँ चल रही थीं। किन्तु वे तो निश्चिंत और निर्भय हो कर एक के बाद एक कविता बोल रहे थे।
इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे निज की चिन्ता नहीं करते थे। ऐसी भी कई यादें हैं, जब वे गहरी चिन्ता में डूबे थे। उनमें व्यक्तिवाद था किन्तु सामाजिकता भी गहन थी। कैसा था वह मेरा दोस्त! वह जो भी कुछ करता था लोक-चर्चा का विषय बन जाता था। जब वह रोया तब बहुत से लोग हँसे और जब वह हँसा तब वे सभी लोग चकित हो गए। उसने प्यार किया तो किंवदंतियाँ बन गईं और संघर्ष किया तब भी लोग जमा हो गए। वह ज़िन्दा था तब लोगों ने आवारा, क्रोधी और घमंडी कहा अब वह नहीं है, तो लोग उसके स्वाभिमान, साहस, संकल्प और दृढ़ता को याद कर के रोते हैं।
वह खिलाड़ी था तो गहरा विचारक भी था, कवि था तो योद्धा भी था। जिनके लिए उसने संघर्ष किया, जिन्हें उसने प्यार किया, जिनको उसने चुनौती दी और जिनके लिए वह जिया, वे सब उसे याद कर रहे हैं परन्तु वक्त आएगा और बातें पुरानी पड़ जाएँगी। किन्तु उसने जो कविताएँ लिखी हैं, उनमें उनकी ज़िन्दगी का स्पंदन है, द्वंद्व है और अक्षर सम्पदा सचमुच अक्षर सम्पदा ही है।
उन्होंने ज़िन्दगी के जिस सत्य को देखा, उसे खुल कर गाया-
गाया तो फिर खुलकर गाया, ख़ामोश रहा, तब दर्द पिया।
विष पिया और चुपचाप रहे, जो मिला वही भोगा हमने-
हर बार चोट माथे पर थी, आँखों में थे टूटे सपने।।
श्री द्विवेदी में गहरा सौंदर्य-बोध था। लौहर्रा को जाने वाले मार्ग में ऊसरा में खड़े थे। संध्या के समय लाल-पीले बादलों में जो आकृतियाँ बना दीं उनको देखकर बोले- ”रंजन जी, इन आकृतियों को कैसे उपयित करोगे?“
इसके साथ ही नारी-सौंदर्य के प्रति उनकी चेतना का एक उदाहरण यों है-
इस ताल के किनारे, कचनार यों पुकारे,
आ पत्थरों की शैया, उपधान के सहारे।
तू लेट जा मैं तुझको, कुछ इस तरह दुलारूँ-
मन चंद्रमा को चूमे, आकाश को निहारे।।
प्यार की ज़िन्दगी को गंगा की धारा से उन्होंने इस प्रकार जोड़ा-
हम भँवर के दुलारे हुए हैं प्रिये,
कुछ दिनों अब किनारे-किनारे चलें।
चल लहर से बहें और तट को छुएँ-
गोद गंगा की है, कोई चिंता नहीं-
डूबते ही शुभे! दोनों तर जाएँगे।
पर यह सौंदर्य और यह प्यार शायद उनकी ज़िन्दगी का स्थायी भाव नहीं था। तभी तो बृजभाषा में वे गा रहे थे-
डँसी दुबिधा नैं मन की मौंज, चैन अजाने गाँव बस्यौ।
कहाँ ते गाऊँ राग-मल्हार, हिये में हाहाकार मच्यौ।।
यह दुविधा कौन सी थी, जिसने उनके मन की मौज को डँस लिया था। वे अनुरागी थे पर बैरागी भी उतने गहरे थे। मैं बातचीत को उद्धृत नहीं कर रहा। यह उनके काव्य का अध्ययन स्वयं बताएगा। मैंने उनकी सभी रचनाएँ नहीं पढ़ीं। अपने मूड में जो कविताएँ वे सुना देते थे, वे सुनी हैं और आज कुछ डायरियाँ देख रहा हूँ। ये कविताएँ मुझे कविताओं से अधिक ज़िन्दगी के क्षण-क्षण जैसी प्रतीत हो रही हैं।
द्विवेदी जी गाँव में जन्मे थे। बरगद की छाया में खेले और पीपल की छाया में बैठ कर कहानी सुनीं। वही परिवेश-
नित साँझ घिरे, लौटें गैंया, बछरा रँभाय, पय-पान करैं।
कुलबधू जोरि कर दीप धरैं, तुलसी मैया खलिहान भरैं।।
गाँव की मानसिक संरचना-सन्तों की वाणी जैसी-
जा दिन काल करैगौ फेरौ, कोई बस न चलैगौ तेरौ।
रे प्रानी! मत कर गरब घनेरौ।।
निखरै कंचन जैसी काया, चंदन-गंधी सीतल छाया,
ऐसे मानसरोबर वारे, हंसा उड़ि कहूँ अनत सिधारे,
रे पंछी! दुनिया रैन-बसेरौ।।
राजनीतिक मतवाद में वे नहीं बँधे थे किन्तु सामयिक राजनीति के प्रति वे संवेदनशील थे। जहाँ इमर्जेंसी के अत्याचारों का मार्मिक चित्र उनके काव्य में था, वहीं जनता-शासन में वे लिख रहे थे-
बढ़ गए हैं इस क़दर, कुछ आपसी मतभेद-
यात्रियों ने कर दिये तरणी-तलों में छेद।
माँझियों के हाथ अब पतवार से हट कर-
बाँधने में व्यस्त हैं लंगोट कस-कस कर।।
वे ऐसी राजनीति देख कर चुप नहीं रह सकते थे। इसलिए कह रहे थे-
ऐ मेरे देश की सरकार में शामिल!
कोई से एक प्रसंगठित घटक-
तू बाक़ी सारे घटकों को-
जल्दी से जल्दी झटक।
भले ही इसके लिए, तू चाहे जिसको उठा-
और उठा कर पटक।
मगर प्राइम-मिनिस्टर की-
कुर्सी को झटपट झटक।।
सत्ता के प्रति बूढ़े राजनीतिज्ञों का विचलन देख कर उन्होंने तीख़ा व्यंग्य किया-
व्यर्थ हैं, फिर भी खड़े हैं अद्यतन तनकर-
अंक-अक्षरहीन, बूढ़े मील के पत्थर।।
व्यवस्था के प्रति उनके मन में विद्रोह था, इसीलिए वे सीधे-सीधे कह रहे थे-
फ़ाइलों के ढेर में मूर्छित पड़ी है पीर,
सलवटों ने अक्षरों के वक्ष डाले चीर।।
इस विषमता को समाप्त करने के लिए उनको लगता था कि युद्ध ही क्षमतावान है-
युद्ध, केवल युद्ध क्षमतावान है-
शांति का दीपक जलाने के लिए।
श्री शंकर द्विवेदी ने कामायनी जैसा काव्य लिखने की कल्पना की थी। लेकिन यह ‘प्रसाद’ जैसी नहीं, ‘शंकर’ जैसी-
तब कोई जय ‘शंकर’ फिर से ‘कामायनी’ लिखेगा।
किंतु पात्र का चयन सिर्फ़ इतना सा भिन्न करेगा।
‘मनु’ होगा मज़दूर, ग़रीबी ‘श्रद्धा’ हो जाएगी-
शासक पर शासित की घोर अश्रद्धा हो जाएगी।।
काश, वे यह कामायनी लिखने को जीवित रहते परन्तु समझौता करना वे नहीं जानते थे। जानते भी तो कर नहीं सकत थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा आगरा में हुई और महानगरीय सभ्यता की औपचारिक शिष्टताओं में रच-बस कर भी उनकी ग्रामीण भावुक-अल्हड़ता और मानवतावादी चेतना इस माहौल में खप नहीं पायी, जिसमें आदमी की क़ीमत सिक्कों से भी कम हो-
कोई क़ीमत नहीं आदमी की जहाँ-
ऐसे माहौल में हम खपेंगे कहाँ?
सचमुच वे इस माहौल को छोड़ कर चले गए दूर.......... ज़िन्दगी के उस पार।।
-डॉ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी
(स्वतंत्र लेखक व विचारक)
प्रोफेसर-लोकवार्ता पाठ्यक्रम,
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली
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