व्यामोह जीवन के लिए
सुख का शुभागमन ही
नहीं, दुःख का समापन भी नहीं।
फिर क्यों मिला
इतना प्रबल व्यामोह जीवन के लिए।।
आलोक की कोई किरण,
देती नहीं मुझको
शरण।
तम जो विरासत में
मिला,
धरता रहा अभिनव
चरण।
निर्वेद-दीपक-ज्योति
पर,
संकल्प-शलभ मिटा
दिए।
निष्फल प्रतीक्षा
ने, मरण-
के साज़ सकल जुटा
दिए।
ऋत् का निदर्शन
ही नहीं, मत का समर्थन भी नहीं।
फिर क्यों मिली
इतनी ललक, दो गीत सर्जन के लिए।।
‘अथ्’ ‘इति’ अहम् की तोल दी,
निष्काम बन जिनके
लिए।
अधिकृत-समर्पित
है अभी-
तन-मन सभी उनके
लिए।
अवसाद! नीरस रेणु
में,
सरसिज-जलज खिलते
नहीं।
इतनी विशद भू पर
कहीं-
सहृदय स्वजन
मिलते नहीं।
भ्रम का समर्पण
ही नहीं, निर्मल मनो-दर्पण
नहीं।
फिर क्यों
विवक्षा है विकल अनुरूप-दर्शन के लिए।।
गत विस्मरण होता
नहीं,
आगत उपेक्षित
क्यों करूँ?
निर्वह अनागत में
कहो-
किस कल्पना के
रंग भरूँ?
उद्गम-विलय के
बीच में,
जो कुछ मिले, है वेदना।
कैसे भरूँ घट में
गरल?
कब तक करूँ अह्वेलना?
समुचित विभाजन ही
नहीं, नृण-नति-प्रतारण
भी नहीं।
फिर क्यों नयन
रोते रहे, अनुराग-अर्जन के
लिए।।
उपयोग कोई क्यों
करे?
कल्मष अवनि के पी
गया,
मधुरस गगन क्यों
कर भरे?
जब तू 'युधिष्ठिर-राम'
से-
नादान छल करती
रही।
चिर् नींद! मेरी
श्वास ही
क्यों अंक में भरती नहीं?
फिर क्यों सुमन
विकसित हुए, सुख-जल-निमज्जन के लिए।।
-27 जुलाई,
1964
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