कविवर शंकर द्विवेदी और उनके सृजन की पृष्ठभूमि*
शनिवार, 5 दिसंबर 2020
गुरुवार, 19 नवंबर 2020
शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020
‘शंकर’ कंगाल नहीं
‘शंकर’ कंगाल नहीं
कल सारा जग था
सगा, किन्तु अब कोई साथ नहीं।
इसलिए कि मेरे
हाथ रहे अब कंचन-थाल नहीं।।
क्या कहूँ तिमिर
में परछाईं भी साथ नहीं चलती।
काजल इतना बह गया, अँधेरी रात नहीं
ढलती।।
रवि उगा, यही देखा कि वनों
में टेसू फूले हैं।
कुछ पिचकारी, कुछ शोर, प्रजाजन सुख-दुःख
भूले हैं।।
आ कर भी द्वार
सुदामा, अब के होली मिला नहीं।
इसलिए कि कान्हा
पर माँटी थी, रंग-गुलाल नहीं।।
यह समय-समय की
बात आज सब परिजन रूठे हैं।
झूठे होने के साथ
सभी अभियोग अनूठे हैं।।
अन्तःनयनों पर आज
स्वार्थ का पड़ा आवरण है।
हठवादी हथकड़ियों
में जकड़ा हुआ आचरण है।।
अब 'तिष्यरक्षिता'
खटपाटी पर है, पय पिया नहीं।
इसलिए कि अंधा
होने को तैयार 'कुणाल' नहीं।।
रुचि की बलिहारी, सभी साँच को आँच दिखाते हैं।
हनते कपोत, हँस कर उलूक को पास बिठाते हैं।।
हित-अनहित का
सुविचार नहीं- यह कैसा जमघट है?
बचपन था ही नादान,
और अब यौवन नटखट है।।
जनता ने बुला
लिया कवि को, पर कुछ भी सुना नहीं-
इसलिए कि उसने
गाए थे कुछ गीत, ख़याल नहीं।।
मुझ पर अपना कुछ
नहीं, नियति ने जो कुछ मुझे दिया-
मैंने प्रमुदित तन-मन
से सबको, दे
सर्वस्व दिया।।
अँजुरी में खारी
अश्रु-सलिल भर, अब तो शेष रहा।
द्वार खड़ा याचक यदि
लौटे, तो अवसाद बढ़ा।।
माँगो, कोई याचक
निराश हो वापस गया नहीं-
इसलिए कि काया भर
कृश है, ‘शंकर’ कंगाल नहीं।।
-11 फरवरी, 1965
गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020
शंकरलाल द्विवेदी : अपने कुल की प्रथा नहीं है
बुधवार, 7 अक्तूबर 2020
प्राण हैं आज से टूटने के लिए
प्राण हैं आज से टूटने के लिए
भोग है भाग्य काऔर कुछ भी नहीं, हम मिले भी तो यों छूटने के लिए।
ये जुड़ेंगे किसी
ज़िन्दगी से कहाँ? प्राण हैं आज से टूटने के लिए।।
जब कहीं भी रहा
ही नहीं जा सका,
तो यहाँ आ गया, काटने दो घड़ी।
पातियाँ
बाँचते-बाँचते, कोर से-
कान तक आ गई
आँसुओं की कड़ी।।
दर्द होने लगा, फिर वहीं बाँह में, था जहाँ एक दिन
सर तुम्हारा रखा।
साँझ है, झील है, पेड़ कचनार का, सिर्फ़ तुम ही नहीं रूठने
के लिए।।
झील में सूर्य के
डूबते-डूबते,
आज फिर हो गया है
अँधेरा गहन।
काँपते-काँपते से
लगे लौटने,
बादलों से घिरी
चाँदनी के चरन।।
नूपुरों की ‘क्वणन’, शून्य में खो गई, दृष्टि को ख़ींच कर पंथ में ले गई।
यों रहा रात भर, मैं अकेला यहाँ, घाटियों में वृथा घूमने के लिए।।
भीज कर
भागते-भागते, थे इसी-
कन्दरा में छिपे, केश निचुरे वहाँ।
तापते-तापते, डाल गलबाहियाँ,
शीष काँधे धरे, सो गए तुम यहाँ।।
आँसुओं का नहीं, दोष है आँख का, आँख का भी नहीं दोष मन का कहो।
धीर धरता नहीं पीर के बोझ से, है विकल जो इन्हें घूँटने
के लिए।।
-4 जनवरी,
1980
मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020
तरनी उतरि गई लहरनि में
तरनी उतरि गई लहरनि में *
कर में, कसि कैं गहि पतबार, तरनी उतरि गई लहरनि में।
नीलौ अम्बरु, कारौ पानी,
इकिलौ जानि हबा बौरानी।
छायौ घटा-टोप अँधियार, बिजुरी कौंधन लगी, गगन में।
तरनी उतरि गई
लहरनि में।।
बढ़ि चलि, कहा लहरि की काया,
करिहै पुरसारथ तैं माया।
मनिरवा! भँमर जाल संसार, डर गयौ तौ डूबैगौ छिन में।
तरनी उतरि गई
लहरनि में।।
इतनीं निहचै जानि खिबैया,
जौ लगि धीरज, तौ लगि नैया।
उतमैं चढ्यौ धार पै ज्वार, इतमैं पाहन बंध्यौ पगनि में।
तरनी उतरि गई लहरनि में।।
तिनुका ह्वै, तिरिबे की बारी-
मति करि मन पहार सौ भारी।
इनकौ, सागरु अगम अपार, भरियो मति अँसुवा अँखियनि में।
तरनी उतरि गई
लहरनि में।।
- आकाशवाणी दिल्ली से 'ब्रज-माधुरी' कार्यक्रम के अंतर्गत १२ जून, १९७० को प्रसारित
कविवर शंकर द्विवेदी और उनके सृजन की पृष्ठभूमि* ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ कविवर श्री शंकर द्विवेदी मेरे साथी और दोस्त थे, उम्र में ही ...
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स्व. शंकर लाल द्विवेदी (२१ जुलाई, १९४१-२७ जुलाई, १९८१) हम-तुम एक डाल के पंछी हम-तुम एक डाल के पंछी, आओ हिलमिल कर कुछ गाएँ। अपनी प्...
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